शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती : 9 साल कि उम्र में घर छोड़ने से देवलोक गमन तक की यात्रा, एक नजर

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शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती हम सब के बीच नहीं रहे हैं। MP के नरसिंहपुर जिले स्थित आश्रम में उन्होंने 11 सितंबर को दोपहर साढ़े तीन बजे के करीब अंतिम सांस ली है। निधन से नौ दिन पहले ही उन्होंने आश्रम में अपना 99वां जन्मदिन मनाया था। स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म एमपी के सिवनी जिले स्थित दिघोरी गांव में दो सितंबर 1924 को हुआ था।

शंकराचार्य का पद हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण
हिंदुओं को संगठित करने की भावना से आदिगुरु भगवान शंकराचार्य ने 1300 बर्ष पूर्व भारत के चारों दिशाओं में चार धार्मिक राजधानियां (गोवर्धन मठ, श्रृंगेरी मठ, द्वारका मठ एवं ज्योतिर्मठ) बनाईं। जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी दो मठों (द्वारका एवं ज्योतिर्मठ) के शंकराचार्य हैं। शंकराचार्य का पद हिंदू धर्म में बहुत महत्वपूर्ण है। हिंदुओं का मार्गदर्शन एवं भगवत् प्राप्ति के साधन आदि विषयों में हिंदुओं को आदेश देने के विशेष अधिकार शंकराचार्यों को प्राप्त होते हैं। सभी हिंदूओं को शंकराचार्यों के आदेशों का पालन करना चाहिये। वर्तमान युग में अंग्रेजों की कूटनीति के कारण धर्म का क्षय, जो कि हमारी शिक्षा पद्धति के दूषित होने एवं गुरुकुल परंपरा के नष्ट होने से हुआ है।

इनका किया विरोध
हिंदूओं को संगठित कर पुनः धर्मोत्थान के लिये चारों मठों के शंकराचार्य एवं सभी वैष्णवाचार्य महाभाग सक्रिय हैं। स्वामी स्वरुपानंद सरस्वती उन्हीं में से एक थे। वे सांई बाबा की पूजा करने के विरोध में रहे। क्योंकि कुछ हिंदू दिशाहीन हो कर अज्ञानवश असत् की पूजा करने में लगे हुए हैं, जिससे हिंदुत्व में विकृति पैदा हो रही है। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी के अनुसार इस्कॉन भारत में आकर कृष्ण भक्ति की आड़ में धर्म परिवर्तन कर रहा है, ये अंग्रेजों की कूटनीति है कि हिंदुओं का ज्ञान ले कर हिंदुओं को ही दीक्षा दे कर अपना शिष्य बना रहे हैं।

मध्य प्रदेश में हुआ जन्म
स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म 2 सितम्बर 1924 को मध्य प्रदेश राज्य के सिवनी जिले में जबलपुर के पास दिघोरी गांव में ब्राह्मण परिवार में पिता श्री धनपति उपाध्याय और मां गिरिजा देवी के यहां हुआ। माता-पिता ने इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा। नौ वर्ष की उम्र में उन्होंने घर छोड़ कर धर्म यात्रायें प्रारम्भ कर दी थीं। इस दौरान वह काशी पहुंचे और यहां उन्होंने ब्रह्मलीन स्वामी करपात्री महाराज वेद-वेदांग, शास्त्रों की शिक्षा ली।

स्वतंत्रता आंदोलनन में कूदे
यह वह समय था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। जब 1942 में अंग्रेजों भारत छोड़ो का नारा लगा तो वह भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े और 19 साल की उम्र में वह ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। इसी दौरान उन्होंने वाराणसी की जेल में नौ और मध्यप्रदेश की जेल में छह महीने की सजा भी काटी। वे करपात्री महाराज की राजनीतिक दल राम राज्य परिषद के अध्यक्ष भी थे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बनाये गए और 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। 1950 में शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानन्द सरस्वती से दण्ड-सन्यास की दीक्षा ली और स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती नाम से जाने जाने लगे।

99वें जन्मदिन के नौ दिन बाद निधन
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती कई दिनों से बीमार थे। वह नरसिंहपुर जिले स्थित आश्रम में ही रह रहे थे। झोतेश्वर स्थित परमहंसी गंगा आश्रम में स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने साढ़े तीन बजे दोपहर अंतिम सांस ली है। इसके बाद आश्रम में भक्तों की भीड़ उमड़ गई है। शंकराचार्य ने नौ दिन पहले ही दो सितंबर को अपना 99वां जन्मदिन मनाया था। निधन की खबर से उनके भक्त शोकाकुल है। आश्रम में लोग अंतिम दर्शन के लिए पहुंचने लगे हैं। प्रदेश की राजनीति के कई बड़े नेता स्वारूपनंद सरस्वती के शिष्य थे।

नौ साल की उम्र में छोड़ दिया था घर
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती का जन्म दो सितंबर 1924 को हुआ था। उनका पैतृक घर सिवनी जिले के दिघोरी गांव में है। वह ब्राह्मण परिवार से आते हैं। पिता का नाम धनपति उपाध्याय था। माता-पिता इनका नाम पोथीराम उपाध्याय रखा था। नौ वर्ष की उम्र में इन्होंने घर छोड़कर धार्मिक यात्राएं शुरू कर दी थी। इसी क्रम में वह काशी पहुंचे और स्वामी करपात्री महाराज से वेद-वेदांग और शास्त्रों की शिक्षा ली। इसके बाद धर्म की राह पर ही चलते रहे।

1981 में मिली शंकराचार्य की उपाधि
आजादी की लड़ाई के साथ-साथ वह धार्मिक कार्यों से भी जुड़े थे। 1950 में वे दंडी संन्यासी बन गए थे। इसके लिए उन्होंने शारदा पीठ शंकराचार्य स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से दंड-संन्यास की दीक्षा ली थी। इसके बाद से उन्हें स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती के नाम से जाने जाने लगे। पहली बार स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को 1981 में शंकराचार्य की उपाधि मिली। वह अभी द्वारका और ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य थे।

सियासत में भी दिलचस्पी
शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को उनके गुरु के पास धर्म और राजनीति दोनों की शिक्षा मिल रही थी। उनके गुरु करपात्री महाराज की एक राजनीतिक पार्टी राम राज्य परिषद थी, जिसके वह अध्यक्ष थे। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती ने राम मंदिर निर्माण के लिए भी लड़ाई लड़ी है। वहीं, सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद उन्हें जब ट्रस्ट में जगह नहीं मिली तो वह नाराज हो गए थे। उन्होंने मुहूर्त और कामकाज पर भी सवाल उठाया था।